अजय तिवारी
वरिष्ठ पत्रकार
चुनाव नतीजों के बाद परंपरा के मुताबिक जैसा होना चाहिए था वैसा नहीं हुआ।
नौ जून को सरकार के शपथ ग्रहण कार्यक्रम में विदेशी मेहमान(पड़ोसी देशों के प्रमुख), फिल्मी मेहमान,कारोबारी मेहमान सब थे लेकिन देश का विपक्ष नदारद था।राष्ट्रपति भवन के मैदान में हुए बड़े जलसे में देश-विदेश से 8000 से ज्यादा मेहमान बुलाए गए थे।विपक्ष को सम्मानपूर्वक आमंत्रित नहीं किया गया,इसलिए वहां देश की प्रमुख नेता सोनिया गांधी और शरद पवार नहीं दिखे। वाम राजनीति के बड़े चेहरे सीताराम येचुरी और डी राजा भी नहीं थे।जम्मू कश्मीर के बड़े नेता फारुख अब्दुल्ला और लोकसभा में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता अखिलेश यादव भी नहीं पहुंचे।
न पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और न तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन नजर आए।
केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन,कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू, झारखंड के मुख्यमंत्री चंपई सोरेन की अनुपस्थिति भी खल रही थी।ये सभी देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व करते हैं
विदेशी मेहमान विपक्षी नेताओं से भी परिचित हैं, इसलिए स्वाभाविक है उनके मन में भी यह सवाल आया होगा कि देश की सरकार बनने जैसे खास मौके पर विपक्ष क्यों उपस्थित नहीं रहा ?
इसे किस तरह से लिया होगा कहने की जरूरत नहीं है। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना से मिलने जब सोनिया गांधी का परिवार गया होगा तब अन्य बातों के साथ विदेशी मेहमान ने राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा से उनके सरकार के साथ रिश्तों पर भी बात की होगी। विपक्ष का कहना है कि उसे शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित ही नहीं किया गया था। विपक्ष के सांसदों की भी ऐसे ही शिकायत थी। विपक्ष सच बोल रहा है अथवा झूठ यह तो वह जानता है या फिर सरकार।हालांकि यह भी सच है कि विपक्ष के आरोपों का सरकार ने कोई खंडन नहीं किया।सत्ताधारी दल के कार्यकर्ताओं को शपथ ग्रहण समारोह के आमंत्रण पत्र पार्टी दफ्तर से लेने में कोई दिक्कत नहीं आई।
यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे जो राज्यसभा में विपक्ष के भी नेता हैं सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए थे। बेमन से राष्ट्रपति भवन पहुंचे खरगे ने कहा कि वह संवैधानिक बाध्यता की वजह से यहां हैं,अपनी खुशी से नहीं। खरगे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भेंट करके उनको बधाई दी अथवा नहीं, इसकी जानकारी दोनों नेताओं ने नहीं दी।
सरकार बनने के बाद शिष्टाचारवश भी सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेता नहीं मिले। विपक्षी नेताओं ने सोशल मीडिया पर भी सरकार को बधाई देने में संकोच किया। पुरानी परंपराएं टूटने लगी है। संसदीय कार्य मंत्री और वरिष्ठ मंत्रियों ने सबसे बड़े विपक्षी दल के नेताओं से भी मुलाकात नहीं की। इस बार दस साल के बाद लोकसभा में विपक्ष के नेता (एलओपी) का पद होगा और सबसे बड़े विपक्षी दल यानि कांग्रेस का होगा। विपक्ष के सांसदों की संख्या इस बार लोकसभा में लगभग 250 है,इसलिए उसे पहले की तरह नजरंदाज नहीं किया जा सकता। संसद के भीतर कानून सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के सांसदों को मिलकर बनाना है इसलिए उनके बीच दुआ-सलाम तो हर हाल में बनी ही रहनी चाहिए। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच रिश्तों में खिंचाव का असर गठबंधन सरकार और संसद पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। नई लोकसभा के अध्यक्ष का 26 जून को चुनाव होना है। लोकसभा का अध्यक्ष निर्विरोध चुनवाने के लिए सरकार को विपक्ष की मदद की जरूरत होगी। चूंकि दोनों के रिश्ते अच्छे नहीं है इसलिए इसमें कठिनाई जाएगी। विपक्ष दो ही स्थिति में सरकार को सहयोग कर सकता है।या तो सरकार विपक्ष को उपाध्यक्ष का पद देने का प्रस्ताव करे अथवा ऐसे सांसद को लोकसभा अध्यक्ष का उम्मीदवार बनाए जो सर्वमान्य हो। सरकार ने विपक्ष से नए लोकसभा अध्यक्ष के विषय में अभी तक कोई बात नहीं की है। विपक्ष को लग रहा है कि सरकार उसे विश्वास में नहीं लेगी इसलिए विपक्ष ने अपने उम्मीदवार के नाम पर विचार करना शुरू कर दिया है। विपक्ष के एक वरिष्ठ नेता ने तेलगू देशम के नेताओं से भी पूछा है कि क्या उसका इरादा अपना लोकसभा अध्यक्ष बनवाना है ? अगर सरकार को समर्थन देने वाला दल तेलगू देशम लोकसभा अध्यक्ष के लिए अपना उम्मीदवार खड़ा करेगा तो विपक्ष उसका समर्थन कर सकता है। हालांकि तेलगू देशम ने अभी तक सार्वजनिक रूप से नहीं कहा है कि उसे लोकसभा अध्यक्ष का पद चाहिए।
कारपोरेट वाली नहीं कोऑपरेटिव वाली :
गठबंधन सरकार जिन क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाना चाहती है उनमें से एक क्षेत्र है सहकारिता। इसके जरिए सरकार यह धारणा भी बनाना चाहती है कि वह कारपोरेट को नहीं कोऑपरेटिव (सहकारिता) को बढ़ावा दे रही है। सरकार प्रायः सभी क्षेत्र कोऑपरेटिव के लिए खोलना चाहती है। पेट्रोल पंप और दवाओं की बिक्री जैसे उपक्रम पिछले कार्यकाल में उसने कोऑपरेटिव संस्थाओं को दिए थे। सरकार कोऑपरेटिव संस्थाओं में दशकों से जमे नेताओं को भी हिलाना चाहती है।इसीलिए कोऑपरेटिव संस्थाओं में चुनाव के लिए चुनाव आयोग जैसी संस्था बनाने का प्रस्ताव है। सरकार पहले ही सारी कोऑपरेटिव संस्थाओं का डेटा तैयार करवा चुकी है, संस्थाओं को कंप्यूटराइजेशन के लिए भी सख्ती से बाध्य किया गया है। सहकारिता मंत्रालय गृह मंत्री अमित शाह के पास होने से कोऑपरेटिव की सारी बड़ी संस्थाएं चाहे वह अमूल हो या इफको सब सहयोग कर रही हैं।
कृषि और किसान दोनों चुनौती :
कृषि क्षेत्र सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है क्योंकि किसानों का विश्वास सरकार पर नहीं है। सरकार ने पुराने वादे पूरे नहीं किए हैं इसलिए उसके लिए इस क्षेत्र में कोई सुधारवादी कदम उठाना बेहद मुश्किल होगा। किसानों की सबसे बड़ी मांग एमएसपी न्यूनतम समर्थन मूल्य) कानूनी गारंटी को लेकर सरकार के पास कोई ठोस जवाब नहीं है। 2022 तक सरकार को किसानों की आय दोगुनी करनी थी, इस विषय में सिवाय झूठ के कुछ नहीं बोला गया। जिन 75,000 किसानों की आय दोगुनी बताई गई,उन्होंने इससे इंकार किया है। सरकार की फसल बीमा योजना को किसान अपना नहीं रहे हैं। किसानों को लगता है कि यह उनको कम बीमा कंपनियां को ज्यादा फायदा पहुंचती है। पंजाब में चल रहा किसान आंदोलन फिर गति पकड़ने लगा है। किसान संगठन सक्रिय हो गए हैं। भाजपा सांसद फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत को चंडीगढ़ विमानतल पर महिला सुरक्षा कर्मी ने कथित रूप से थप्पड़ मारने की जो हरकत की थी उसका भी असर हुआ है। पंजाब में किसानों का बड़ा वर्ग कंगना को किसान विरोधी मानता है।इधर तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने किसान नेताओं को फोन करके कहा है कि वह आंदोलन का समर्थन करती हैं। उन्होंने अपनी पार्टी के पांच सांसद भी पंजाब में किसानों के धरना स्थल पर भेजें। अगले महीने जुलाई में किसान नेता दिल्ली में सांसदों से मिलेंगे और आंदोलन के लिए आगामी कार्यक्रम बनाएंगे।चार सौ किसान संगठनों वाले संयुक्त किसान मोर्चा ने नए कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान से मिलने से इनकार कर दिया है। संयुक्त किसान मोर्चा के बड़े आंदोलन के बाद ही सरकार ने कृषि कानून वापस लिए थे।
रोजगार नहीं है और श्रमिक भी खुश नहीं :
सरकार की चुनाव में सबसे ज्यादा आलोचना बेरोजगारी की वजह से भी हुई। इस मुद्दे पर सरकार चलाने वाली भाजपा और उसके सहयोगी कोई जवाब नहीं दे सके। इस नए कार्यकाल में भी उसके समक्ष रोजगार देने की चुनौती है। पिछले कार्यकाल में सरकार ने हर बार कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) और कर्मचारी राज्य बीमा निगम ( ईएसआई) के सदस्यों की संख्या के आधार पर रोजगार के मोर्चे पर अपना बचाव किया लेकिन विफल रही।
पिछली संसद में सरकार ने चार लेबर कोड पारित कराए थे, लेकिन श्रमिकों के विरोध के चलते इसे लागू नहीं कर सकी थी। बड़ी संख्या में श्रम कानून को समाप्त करके श्रम सुधार के नाम पर लाए गए लेबर कोड को लागू करना अभी भी सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। आरएसएस का श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ भी चार में से दो लेबर कोड का विरोध करता है। दस प्रमुख श्रमिक संगठन तो चारों ही कोड को खारिज कर चुके हैं। सभी श्रमिकों को पेंशन दी जानी है यह विषय भी सरकार को हल करना है।
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